समसामयिक चर्चा....
कतिपय लोगों ने धर्मराज युधिष्ठिर को द्युत व्यसनी कहा- इस बात पर कड़ा विरोध है । धर्मराज हमेशा प्रेरणा के पुंज थे, रहेंगे !!
धर्म की जय और धर्मराज युधिष्ठिर की जय कहते हुए पक्ष रख रहा हूँ ।
युधिष्ठिर में युधि का अर्थ होता है “ किसी प्रकार के युद्घ में “ और ष्ठिर का अर्थ स्थिर होता है ।
रामायण काल के आदर्शों को या क्रियाकलापों को हम महाभारत काल में और महाभारत काल को हम हर्षवर्धन के काल में और हर्षवर्धन के काल को शिवाजी के काल में तथा शिवाजी के काल के आदर्श को आधुनिक काल में नहीं कसा जा सकता ।
जैसे शिवाजी स्वंयम रणभूमि में जाते थे पर आधुनिक काल का कोई प्रधानमंत्री स्वंयम रणभूमि में नहीं जाता पर काल बदलने से बहुत से नियम बदल जाते हैं ।
अमेरिका में केवल कुछ वर्षों पहले तक मारीयुआना, अवैध था अब कुछ राज्यों में वैध है कल को पूरे विश्व में वैध हो सकता है ।
अब आते हैं महाभारत काल पर । महाभारत काल में द्युत क्रीड़ा का आमंत्रण मिलने पर दूसरा राजा उसे अस्वीकार नहीं करता था और दुष्ट कौरवों को यह बात पता थी ।
युधिष्ठिर ने वह जुआँ खेला और उन्हें पता था की कौरव खेल के नियम का उल्लंघन कर रहे पर वे चुप रहे । यदि वे उस नियमों पर हल्ला मचाते तो युधिष्ठिर ही उनका नाम न रह जाता ।
धर्म का अवतार दोनों पक्षों में था , कौरव पक्ष में धर्म विदुर के रूप में आया पर बेइज्जत हुआ और धर्म की बेइज़्ज़ती कौरवों के नाश का कारण बनीं ।
धर्म , पांडव पक्ष में युधिष्ठिर के रूप में आया और राजा के रूप में उसका मान सम्मान हुआ और युद्ध में उसके पक्ष में विजय पताका फहराई गयी ।
मुझे धर्म का वकील नहीं बनना है । बस दो तीन बातें आपको याद दिला देनी है…
महाभारत युद्ध के पहले युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक शंख बजाया था जिसका अर्थ ही था की युद्ध में जब हमारी विजय होगी तो उसका श्रेय केवल श्रीकृष्ण को होगा ।
यही परम भागवत की परिभाषा है वह अपने कर्म के बल का घमंड नहीं करता , वह केवल कर्म करता है और परिणाम का श्रेय ईश्वर को देता है और परिणाम की असफलता स्वंयम स्वीकार करता है ।
गंधर्वों द्वारा जब जंगल में जब दुर्योधन की हार होने ही वाली थी तो युधिष्ठिर बड़ी दृढ़ता से कहते हैं की बाहरी शत्रुओं के लिए हम 105 हैं ।
यक्ष प्रश्न का उत्तर देते हुए वह अर्जुन या भीम को नहीं अपनी सौतेली माता , माद्री के बेटे जीवन की याचना करते हैं ।
नरो वा कुंजरों वा - कहकर उन्हें भयानक लज्जा का अनुभव होता है और द्रोणाचार्य को उस भयानक युद्ध में भी केवल युधिष्ठिर पर विश्वास था ।
स्वर्ग को दुत्कार दिया पर कुत्ते का साथ नहीं छोड़ा …
और रही बात द्रौपदी के शील की रक्षा तो वह श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य है । श्री भगवान ने बचपन में जो वस्त्र चुराने की लीला करी थी उन्हें उसे लौटाना भी था ।
कृपया धर्मराज युधिष्ठिर का अपमान न करें अन्यथा वे तो गांधारी और धृतराष्ट्र की भी युद्धोपरांत सेवा करते रहे !
धर्म का मज़ाक़ बनाने वालों का भी ईश्वर कल्याण करें ।
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