रविवार, 26 नवंबर 2023

कहानी नमक का धर्म


  कहानी

अम्मा नून कम है तरकारी में ।
चूल्हे के पास बैठा टुकुन खाने का पहला
निवाला मुंह में रखते हुए बोल पड़ा ।

"दे रहे हैं रुको ।
" अम्मा ने इतना कहते हुए नमक के डिब्बे में
हाथ लगाया तो टुकुन ने हाथ आगे कर दिया ।

"नहीं हाथ में नहीं देंगे ।
" इतना कह कर अम्मा ने थाली में नमक रख दिया ।

"हाथ में काहे नहीं ?
" खाने को छोड़ अम्मा की तरफ अपनी बड़ी बड़ी
आंखों से घूरता हुआ टुकुन बोला। 

"हाथ में नून देने से सब धरम चला जाता है ।
" रोटी सेकती हुई अम्मा ने जवाब दिया ।

"कहां चला जाता है ?
" वो अब भी अम्मा को घूर रहा था ।

"हम तुमको नून देंगे तो हमारा धरम
तुमको चला जाएगा ।"

"तो उससे का होगा ?
" टुकुन की तरफ देखते हुए मां के
हाथ पर सेक लग गया ।

वो तड़पते हुए बोली
"तुम्हारी बतकही में हाथ जल गया ।
चलो चुपचाप खाना खाओ ।
" टुकुन ने इसी के साथ अम्मा के हाथ से
मार भी खा ली ।

अब जब मां टुकुन को नमक देती वो जान बूझ कर
हाथ आगे करता और मां के हाथ पर नमक ना
रखने पर यही सवाल पूछता।
मां अब उसके इस सवाल से चिढ़ने लगी थी ।
लेकिन समय बीतने के साथ टुकुन ने ये
सवाल पूछना छोड़ दिया ।
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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
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गरीब की ज़िंदगी सांप सीढ़ी के खेल जैसी है ।
कब ऊंचाई छूती खुशियों को मुसीबतों का सांप
डस ले और कब गरीब आसमान से सीधा ज़मीन पर
आ पहुंचे कह नहीं सकते ।

इधर भी यही हुआ ।
एक दिन अम्मा बीमार पड़ गयी ।
टुकुन का परिवार जो कम में ही खुश था
आज मुसीबतों के पहाड़ तले दब गया ।
टुकुन के पिता ने अपनी हैसीयत के हिसाब से
आसपास के सभी डॉक्टरों को दिखाया लेकिन
उसकी हालत में कुछ खास सुधार नहीं आ रहा था ।

टुकुन की अम्मा की बिगड़ती हालत और बढ़ रहे
कर्जे की मार उसके पिता की हिम्मत और
उसकी उम्मीदों को तोड़ रही थी ।

एक दिन टुकुन अपनी अम्मा के सिरहाने
जा कर बैठ गया ।

"अम्मा तुमको क्या हो गया ।
" अम्मा को एक टक देखता टुकुन बोला ।

"कुछो नहीं बबुआ, बस थोड़ा बीमार हैं ।
जल्दी ठीक हो जाएंगे ।
" टुकुन की तरफ देख कर जबरदस्ती
मुस्कुराते हुए अम्मा ने जवाब दिया ।

"बीमार कइसे होते हैं अम्मा ?"

"ई सब करम का खेल है बाबू ।
किए होंगे कोनो पाप जिसका सजा भोग रहे हैं ।"

हम भारतीयों के लिए हमारी पीड़ा का कारण हमेशा हमारे किये गये पापों को ही माना जाता है।
शायद गरीबी ही सबसे बड़ा पाप है
इसीलिए गरीब को ही सबसे ज़्यादा
सज़ा भी मिलती है ।

"जाओ देखो पपा खाना बना लिए हों तो
ले के खा लो ।
" अम्मा टुकुन के सामने रोना नहीं चाहती थी ।
टुकुन एकदम शांत था ।
शायद कुछ सोच रहा था ।
वो अक्सर यही करता था ।
जब कोई बात उसके मन में गड़ जाती तो
वो तब तक सोचता जब तक उसका
नन्हा दिमाग कोई निष्कर्ष ना निकाल ले ।

शायद टुकुन ने सोच लिया था इसीलिए
भागता हुआ चूल्हे के पास गया और
जब तक उसके पिता उसे खाना खाने को
कहते तब तक भागता हुआ फिर अम्मा के पास
पहुंच गया ।

"अम्मा हाथ दो।"

"क्या हुआ ?"

"हाथ दो ना ।"

"क्यों तंग कर रहा है टुकुन ।
जा के खाना खा ले।
" कमज़ोरी की वजह से चिढ़चिढ़ी हो चुकी
अम्मा ने थोड़ा चिढ़ कर कहा ।

"अम्मा एक बार हाथ दो ना ।"

"ये ले ।
" अम्मा जानती थी कि टुकुन बहुत ज़िदी है
जब तक वो हाथ ना आगे करेगी तब तक
वो कहीं नहीं जाएगा ।
इसीलिए उसने हाथ आगे कर दिए ।
अम्मा की खुली हथेली पर टुकुन ने अपनी
नन्हीं सी मुट्ठी खोल दी ।
मुट्ठी में समाया सारा नमक अम्मा की
हथेली पर जमा हो गया ।

"अम्मा अब हम तुमको अपना सारा धरम दे दिए हैं। तुम्हारा सारा पाप कट जाएगा और तुम बहुत जल्दी
ठीक हो जाओगी ।
" टुकुन के चेहरे पर संतोष था और मां की
आंखों में हैरानी, करुणा, स्नेह मिले आंसू ।

अम्मा समझ नहीं पा रही थी इस पर टुकुन से क्या कहे । उसने टुकुन को करीब बुलाया और सीने से लगा लिया । टुकुन के पिता दूर से ये सब देख कर मुस्कुराते रहे थे ।

नमक से कुछ हो ना हो लेकिन अपने लिए
बेटे के मन में ये इतना स्नेह और फिक्र देख कर
अम्मा के अंदर की आधी बीमारी तो क्षण भर में
ठीक हो गयी थी ।

बच्चे सच में आधा दुःख हर लेते हैं 😊

रविवार, 19 नवंबर 2023

कहानी उस्ताद की

 

कहानी

वह बड़े इत्मीनान से गुरु के सामने खड़ा था। गुरु अपनी पारखी नजर से उसका परीक्षण कर रहे थे। नौ दस साल का छोकरा। बच्चा ही समझो। उसे बांया हाथ नहीं था। किसी बैल से लड़ाई में टूट गया था।

"तुझे क्या चाहिए मुझसे?" गुरु ने उस बच्चे से पूछा।

उस बच्चे ने गला साफ किया। हिम्मत जुटाई और कहा, " मुझे आप से कुश्ती सीखनी है।

एक हाथ नहीं और कुश्ती लड़नी है ? अजीब बात है।

"क्यूं ?"

"स्कूल में बाकी लड़के सताते है मुझे और मेरी बहन को। टुंडा कहते है मुझे। हर किसी की दया की नजर ने मेरा जीना हराम कर दिया है गुरुजी। मुझे अपनी हिम्मत पर जीना है। किसी की दया नहीं चाहिए। मुझे खुद की और मेरे परिवार की रक्षा करनी आनी चाहिए।"

"ठीक बात। पर अब मै बूढ़ा हो चुका हूं और किसी को नहीं सिखाता। तुझे किसने भेजा मेरे पास?"

"कई शिक्षकों के पास गया मैं। कोई भी मुझे सिखाने तैयार नहीं। एक बड़े शिक्षक ने आपका नाम बताया और कहा 'वे ही सीखा सकते है क्योंकि उनके पास वक्त ही वक्त है और कोई सीखने वाला भी नहीं है ऐसा बोले वे मुझे।"

गुरूर से भरा जवाब किसने दिया होगा यह उस्ताद समझ गए। ऐसे अहंकारी लोगो की वजह से ही खल प्रवृत्ति के लोग इस खेल में आ गए यह बात उस्ताद जानते थे।

"ठीक है। कल सुबह पौ फटने से पहले अखाड़े में पहुंच जा। मुझसे सीखना आसान नहीं है यह पहले ही बोल देता हूं। कुश्ती एक जानलेवा खेल है। इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए करना। मैं जो सिखाऊं उस पर पूरा भरोसा रखना। और इस खेल का नशा चढ़ जाता है आदमी को। तो सिर ठंडा रखना। समझा?"

"जी उस्ताद। समझ गया। आपकी हर बात का पालन करूंगा। मुझे आपका चेला बना लीजिए।" मन की मुराद पूरी हो जाने के आंसू उस बच्चे की आंखो में छलक गए। उसने गुरु के पांव छू कर आशीष लिया।

अपने एक ही चेले को सिखाना उस्ताद ने शुरू किया। मिट्टी रोंदी, मुगदर से धूल झड़कायी और इस एक हाथ के बच्चे को कैसे विद्या देनी है इसका सोचते सोचते उस्ताद की आंख लग गई।
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एक ही दांव उस्ताद ने उसे सिखाया और रोज़ उसकी ही तालीम बच्चे से करवाते रहे। छह महीने तक रोज बस एक ही दांव। एक दिन चेले ने उस्ताद के जन्मदिन पर पांव दबाते हुए हौले से बात को छेड़ा।

"गुरुजी, छह महीने बीत गए, इस दांव की बारीकियां अच्छे से समझ गया हूं और कुछ नए दांव पेंच भी सिखाइए ना। "

उस्ताद वहां से उठकर चल दिए। बच्चा परेशान हो गया कि गुरु को उसने नाराज़ कर दिया।

फिर उस्ताद की बात पर भरोसा करके वह सीखता रहा। उसने कभी नहीं पूछा कि और कुछ सीखना है।

गांव में कुश्ती की प्रतियोगिता आयोजित की गई। बड़े बड़े इनाम थे उसमें। हरेक अखाड़े के चुने हुए पहलवान प्रतियोगिता में शिरकत करने आए। उस्ताद ने चेले को बुलाया। "कल सुबह बैल जोत के रख गाड़ी को। पास के गांव जाना है। सुबह कुश्ती लड़नी है तुझे।"

पहली दो कुश्ती इस बिना हाथ के बच्चे ने यूं ही जीत ली। जिस घोड़े के आखिरी नंबर पर आने की उम्मीद हो और वह रेस जीत जाए तो रंग उतरता है वैसा सारे विरोधी उस्तादों का मुंह उतर गया। देखने वाले अचरज में पड़ गए। एक हाथ का बच्चा कुश्ती में जीत ही कैसे सकता है? किसने सिखाया इसे?"

अब तीसरी कुश्ती में सामने वाला खिलाड़ी नौसिखिया नहीं था। पुराना जांबाज़। पर अपने साफ सुथरे हथकंडों से और दांव का सही तोड़ देने से यह कुश्ती भी बच्चा जीत गया।

अब इस बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ गया। पूरा मैदान भी अब उसके साथ हो गया था। मैं भी जीत सकता हूं, यह भावना उसे मजबूत बना रही थी।

देखते ही देखते वह अंतिम बाज़ी तक पहुंच गया।

जिस अखाड़े वाले ने उस बच्चे को इस बूढ़े उस्ताद के पास भेजा था, उस अहंकारी पहलवान का चेला ही इस बच्चे का आखिरी कुश्ती में प्रतिस्पर्धी था।

यह पहलवान उसकी उम्र का होने के बावजूद शक्ति और अनुभव में इस बच्चे से श्रेष्ठ था। कई मैदान मार लिए थे उसने। इस बच्चे को वह मिनटों में चित कर देगा यह स्पष्ट था। पंचों ने राय मशवरा किया।

"यह कुश्ती कराना सही नहीं होगा। कुश्ती बराबरी वालों में होती है। यह कुश्ती मानवता और समानता के अनुसार रद्द किया जाता है। इनाम दोनों में बराबरी से बांटा जाएगा।" पंचों ने अपना मंतव्य प्रकट किया।

"मैं इस कल के छोकरे से कई ज्यादा अनुभवी हूं और ताकतवर भी। मैं ही ये कुश्ती जीतूंगा यह बात सोलह आने सच है। तो इस कुश्ती का विजेता मुझे बनाया जाए।" वह प्रतिस्पर्धी अहंकार में बोला।

"मैं नया हूं और बड़े भैया से अनुभव में छोटा भी। मेरे उस्ताद ने मुझे ईमानदारी से खेलना सिखाया है। बिना खेले जीत जाना मेरे उस्ताद की तौहीन है। मुझे खेल कर मेरे हक का जो है उसे दीजिए। मुझे ये भीख नहीं चाहिये।" उस बांके जवान की स्वाभिमान भरी बात सुन कर जनता ने तालियों की बौछार कर दी।

ऐसी बातें सुनने को अच्छी पर नुकसानदेह होती है। पंच हतोत्साहित हो गए। कुछ कम ज्यादा हो गया तो? पहले ही एक हाथ खो चुका है अपना और कुछ नुकसान ना हो जाए? मूर्ख कहीं का!

लड़ाई शुरू हुई।

और सभी उपस्थित अचंभित रह गए। सफाई से किए हुए वार और मौके की तलाश में बच्चे का फेंका हुआ दांव उस बलाढ्य प्रतिस्पर्धी को झेलते नहीं बना। वह मैदान के बाहर औंधे मुंह पड़ा था। कम से कम परिश्रम में उस नौसिखिए बच्चे ने उस पुराने महारथी को धूल चटा दी थी।

अखाड़े में पहुंच कर चेले ने अपना मेडल निकाल कर उस्ताद के पैरो में रख दिया। अपना सिर उस्ताद के पैरों की धूल माथे लगा कर मिट्टी से सना लिया।

"उस्ताद, एक बात पूछनी थी। "

"पूछ।"

"मुझे सिर्फ एक ही दांव आता है। फिर भी मैं कैसे जीता?"

"तू दो दांव सीख चुका था। इस लिए जीत गया।"

"कौन से दो दांव उस्ताद?"

पहली बात, तू यह दांव इतनी अच्छी तरह से सीख चुका था कि उसमे गलती होने की गुंजाइश ही नहीं थी। तुझे नींद में भी लड़ाता तब भी तू इस दांव में गलती नहीं करता। तुझे यह दांव आता है यह बात तेरा प्रतिद्वंदी जान चुका था, पर तुझे सिर्फ यही दांव आता है यह बात थोड़ी उसे मालूम थी?"

"और दूसरी बात क्या थी उस्ताद? "

"दूसरी बात ज्यादा महत्व रखती है। हरेक दांव का एक प्रतिदांव होता है। ऐसा कोई दांव नहीं है जिसका तोड़ ना हो। वैसे ही इस दांव का भी एक तोड़ था।"

"तो क्या मेरे प्रतिस्पर्धी को वह दांव मालूम नहीं होगा?"

"उसे मालूम था। पर वह कुछ नहीं कर सका। जानते हो क्यूं ?… क्योंकि उस तोड़ में दांव देने वाले का दूसरा हाथ पकड़ना पड़ता है। तेरे दूसरा हाथ था ही नहीं, जिसे वह पकड़ सकता।

अब आपके समझ में आया होगा कि एक बिना हाथ का साधारण सा लड़का विजेता कैसे बना?

जिस बात को हम अपनी कमजोरी समझते हैं, उसी को जो हमारी शक्ति बना कर जीना सिखाता है, विजयी बनाता है, वही सच्चा गुरु है।

अंदर से हम कहीं ना कहीं कमजोर होते है, दिव्यांग होते है। उस कमजोरी को मात दे कर जीने की कला सिखाने वाला गुरु हमें चाहिए।

रविवार, 5 नवंबर 2023

कथा पलटूराम बाबा की

 

कथा
(पढ़ते पढ़ते मेरी आंखे छलक पड़ी) ।।

श्री अयोध्या जी में 'कनक भवन' एवं 'हनुमानगढ़ी' के बीच में एक आश्रम है जिसे 'बड़ी जगह' अथवा 'दशरथ महल' के नाम से जाना जाता है।

काफी पहले वहाँ एक सन्त रहा करते थे जिनका नाम था श्री रामप्रसाद जी। उस समय अयोध्या जी में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी। ज्यादा लोग नहीं आते थे।
श्री रामप्रसाद जी ही उस समय बड़ी जगह के कर्ता धर्ता थे। वहाँ बड़ी जगह में मन्दिर है जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई (श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत एवं श्री शत्रुघ्न जी) एवं हनुमान जी की सेवा होती है। चूंकि सब के सब फक्कड़ सन्त थे... तो नित्य मन्दिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था उसी से मन्दिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था।

प्रतिदिन मन्दिर में आने वाला सारा चढ़ावा एक बनिए (जिसका नाम था पलटू बनिया) को भिजवाया जाता था। उसी धन से थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था... उसी का भोग-प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और जो भी सन्त आश्रम में रहते थे वे खाते थे।
एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मन्दिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ जोड़ा गांठा तो था नहीं... तो क्या किया जाए...? कोई उपाय ना देखकर श्री रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेज के कहलवाया कि भइया आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है...
अतः
थोड़ा सा राशन उधार दे दो... कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए। पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महन्त जी का लेना देना तो नकद का है... मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा।
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श्री रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो "जैसी भगवान की इच्छा" कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। सारे साधु भी जल पी के रह गए। प्रभु की ऐसी परीक्षा थी कि रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए। वहाँ मन्दिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुन्दर पीताम्बर ओढ़ाया जाता था तथा शयन आरती के बाद श्री रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घण्टा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे। पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए।

धीरे-धीरे करके रात बीतने लगी। करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं, 'अरे पलटू... पलटू सेठ... अरे दरवाजा खोल...।'

उसने हड़बड़ा कर खीझते हुए दरवाजा खोला। सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे... अभी इनकी अच्छे से डांट लगाऊँगा। जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी... एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं।

वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। उनकी छवि इतनी मोहक... ऐसी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा,
'बच्चों...! तुम हो कौन और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो...?'
बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले, हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं... इसका कोना खोलो... इसमें सोलह सौ रुपए हैं... निकालो और गिनो।' ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी।

     जल्दी जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चांदी के सोलह सौ सिक्के निकले। प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने कहा, 'इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना।'

अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई, 'हाय...! आज मैंने राशन नहीं दिया... लगता है महन्त जी नाराज हो गए हैं... इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए।' पश्चाताप, संकोच और प्रेम के साथ उसने हाथ जोड़कर कहा, 'बच्चों...! मेरी पूरी दुकान भी उठा कर मैं महन्त जी को दे दूँगा तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते-देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा।'

बच्चों ने कहा, 'ठीक है... आप एक साथ मत दीजिए... थोड़ा-थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह-सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा... आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा।' पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए।

वो फिर हाथ जोड़कर बोला, 'जैसी महन्त जी की आज्ञा।' इतना कह सुन के वो बच्चे चले गए लेकिन जाते जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए।

इधर सवेरे सवेरे मंगला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मन्दिर के पट खोले तो देखा भगवान का पीताम्बर गायब है। उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया। जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवा के कृतज्ञता के साथ हाथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।

रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था। वे पूछें, 'क्या हुआ... अरे किस बात की माफी मांग रहा है।' पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे, 'महाराज रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी... मैं कान पकड़ता हूँ आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा और ये रहा आपका पीताम्बर... वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे... बड़े प्यारे बच्चे थे... इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये...

     आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ।' जब रामप्रसाद जी ने वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मन्दिर का ही है जो गायब हो गया था। अब वो पूछें कि, 'ये तुम्हारे पास कैसे आया?' तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई।
अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मन्दिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि, 'हे भक्तवत्सल...! मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और कष्ट उठाया सो उठाया मैंने जीवन भर आपकी सेवा की... मुझे तो दर्शन ना हुआ... और इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए।'

जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा वे तो त्रिभुवन के नाथ थे... अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। अब तो वे दोनों ही लोग बैठ कर रोएँ। इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई। आज तक वहाँ सन्त सेवा होती आ रही है। इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में श्री पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए।

श्री रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। संसार के लिए तो वे मूर्छित थे किन्तु मूर्च्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ और उसी दर्शन में श्री जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा अपनी ऊँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ।
वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव... ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आए परन्तु प्रभु जानबूझकर इन्हें भेजते हैं ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं... वे सतर्क हो जाएं... उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न हो सके।जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया ऐसे ही हमारा भी कर दे..!!
‼️🙏जय सियाराम🙏‼️

शनिवार, 4 नवंबर 2023

राम फिर से आएंगे, आते रहेंगे

 

भगवान राम जानते थे कि उनकी मृत्यु का समय हो गया है। वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना ही पड़ता है। यही जीवन चक्र है। और मनुष्य देह की सीमा और विवशता भी यही है।

उन्होंने कहा...
“यम को मुझ तक आने दो। बैकुंठ धाम जाने का समय अब आ गया है”

मृत्यु के देवता यम स्वयं अयोध्या में घुसने से डरते थे। क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान से भय लगता था। उन्हें पता था कि हनुमानजी के रहते यह सब आसान नहीं।

भगवान श्रीराम इस बात को अच्छी तरह से समझ गए थे कि, उनकी मृत्यु को अंजनी पुत्र कभी स्वीकार नहीं कर पाएंगे, और वो रौद्र रूप में आ गए, तो समस्त धरती कांप उठेगी।

उन्होंने सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा से इस विषय मे बात की। और अपने मृत्यु के सत्य से अवगत कराने के लिए राम जी ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया!

और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा।  हनुमान ने स्वयं का स्वरुप छोटा करते हुए बिल्कुल भंवरे जैसा आकार बना लिया...और अंगूठी को तलाशने के लिये उस छोटे से छेद में प्रवेश कर गए। वह छेद केवल छेद नहीं था, बल्कि एक सुरंग का रास्ता था, जो पाताल लोक के नाग लोक तक जाता था। हनुमान नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया।

वासुकी हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए,   जहाँ पर ढेर सारी अंगूठियों का ढेर लगा था। वहां पर अंगूठियों का जैसे पहाड़ लगा हुआ था।

“यहां देखिए, आपको श्री रामकी अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा।

हनुमानजी सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे? यह भूसे में सुई ढूंढने जैसा था। लेकिन उन्हें राम जी की आज्ञा का पालन करना ही था। तो राम जी का नाम लेकर उन्होंने अंगूठी को ढूंढना शुरू किया।

सौभाग्य कहें या राम जी का आशीर्वाद या कहें हनुमान जी की भक्ति...उन्होंने जो पहली अंगूठी उठाई, वो राम जी की ही अंगूठी थी। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। वो अंगूठी लेकर जाने को हुए, तब उन्हें सामने दिख रही एक और अंगूठी जानी पहचानी सी लगी।

पास जाकर देखा तो वे आश्चर्य से भर गए! दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम जी की ही अंगूठी थी। इसके बाद तो वो एक के बाद एक अंगूठीयाँ उठाते गए, और हर अंगूठी श्री राम की ही निकलती रही।

उनकी आँखों से अश्रु धारा फूट पड़ी!

' वासुकी यह प्रभु की कैसी माया है ? यह क्या हो रहा है? प्रभु क्या चाहते हैं?

वासुकी मुस्कुराए और बोले,

“जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। जो निश्चित है। जो अवश्यम्भावी है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं।

हर बार कल्प के दूसरे युग मे अर्थात त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है...यहाँ आता है और हर बार पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

इसलिए यह सैकड़ों हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं। सभी श्री राम की ही है। अंगूठियां गिरती रहीं है...और इनका ढेर बड़ा होता रहा।

भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां पर्याप्त स्थान है”।

हनुमान एकदम शांत हो गए। और तुरन्त समझ गए कि, उनका नाग लोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात्कार कोई आकस्मिक घटी घटना नहीं थी। बल्कि यह प्रभु राम का उनको समझाने का मार्ग था कि, मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकता। राम मृत्यु को प्राप्त होंगे ही। पर राम वापस आएंगे...यह सब फिर दोहराया जाएगा।

यही सृष्टि का नियम है, हम सभी बंधे हैं इस नियम से। संसार समाप्त होगा। लेकिन हमेशा की तरह, संसार पुनः बनता है और राम भी पुनः जन्म लेंगे।

प्रभु राम आएंगे...उन्हें आना ही है...उन्हें आना ही होगा।
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